Saturday, August 8, 2015

Shayar

भावों में नहीं यह छलकने देता कि तुम ना होते तो क्या होता । ज़रूर कहता हूँ कि ढूँढता फ़िर रहा हूँ तुम्हें आज कल यहाँ से वहाँ।
बहुत फ़िर चुके हम आज भी। मुकाम अगर आया हो तो यही कहेंगे उससे , कि जब तुम न थे तो घुले थे सभी मतलब इस ज़िन्दगी में। आज जो तुम मिले तो मिट गयी भले है शिद्दत। पर न हम हैं यहां पर, न तुम हो वहां पर।


शायद कोई आया हो सुकून सीधी सड़कों पर चलकर। ज़ब वादियों से आगे, हम सिसकते किरदारों के सवालों की ज़ुबानी यह पूछें की अगर तुम यही चाहते थे , हम ही से है मिलना फिर क्यों न कहा। …यह कहते ही थे  … कि उलट गया जहान जो इंतज़ार की इन्तहाँ  हो चुकी थी।
जब यह कहकर हम गुज़रे तो तलब की इत्तला हो चुकी थी।
फरमा ही देते कि इच्छा से आये, है इच्छा से जाना।
रुखसत न बदले भले ही बदले ज़माना। अगर कह ही देते तो याद आता वो तराना। गाये जा तो बनेगा फ़साना।
तरानों की मुज़्बिल जुबां पर इखलाक न हो तो गाये जा जहां पर.... ।
हमें आ गयी आज शायरी ।
यहां पर ही है दफ़न उन ज़मानों की सोहबत, जिन्हें हम कहते थे मशहरूफ़ियत की ज़ाहिरी ॥ 

No comments: